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कार्रवाईयों की रिपोर्टिंग बनाम कार्रवाई के लिए रिपोर्टिंग

करोबारी मीडिया सरकारी दफ्तरों, जांच एजेंसियों व अदालतों द्वारा की जाने वाली कार्रवाईयों की रिपोर्टिंग तो करता है लेकिन किसी मुद्दे पर कार्रवाईयों के लिए रिपोर्टिंग नहीं करता है। उनके मामलों में तो कार्रवाई के लिए रिपोर्टिंग बिल्कुल नहीं करता है जो समाज और सत्ता में दबंग और ताकतवर माने जाते हैं। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को बलात्कार के दोषी पाए जाने के फैसले की सूचना कारोबारी मीडिया ने दी और एक दूसरे से बढ़ चढ़कर दी। इतनी बढ़-चढ़कर कि अश्लीलता की सीमा तक पहुंच गई। जबकि गुरमीत राम रहीम के खिलाफ एक के बाद एक कारनामों की खबरें ने करनी चाही लेकि 2002 से उसकी चुप्पी बनी रही।कारोबारी मीडिया में गुरमीत राम रहीम ने बड़ी मात्रा में रुपये देकर अपने लिए जगह खरीद रखी थी। यदि मीडिया हाउस अपने लिए सूचना का अधिकार कानून को लागू करने की इजाजत दें तो उनसे ये सूचना हासिल की जा सकती है।
सरकारी कार्रवाई या अदालत के फैसले की रिपोर्टिंग मीडिया की मजबूरी होती है यदि उसे अपनी थोड़ी बहुत विश्वसनीयता भी लोगों के बीच बनाए रखनी हैं। वास्तविकता तो ये है कि कारोबारी मीडिया के संस्थानों में सरकारी कार्रवाई और अदालत के फैसलों पर खेलने की ही प्रतिस्पर्द्धा होती है। उनके बीच पोल खोल देने की या कार्रवाई और फैसले के लिए बाध्य करने वाली रिपोर्टिंग की प्रतिस्पर्द्धा नहीं होती है।
सच्चा डेरा सौदा का विस्तार पिछले पन्द्रह वर्षों में बहुत ही तेजी के साथ हुआ लेकिन बलात्कार के फैसले के बाद डेरे के अपराधों की सूची जिस तरह से कारोबारी मीडिया में पेश की जा रही है, उन अपराधों के घटने के दौरान उनसे यही मीडिया बेखबर क्यों बना रहा ? 2002 में जिस समय एक लड़की ने इस डेरे के सच को सामने लाने का साहस कर रही थी तब लोकतंत्र के प्रहरी होने का दावा करने वाले ये मीडिया संस्थानों को उसकी तरफ देखना भी गंवारा नहीं था।उस सच को वहां के स्थानीय एक सांध्य दैनिक पूरा सच ने प्रकाशित किया। आखिरकार पूरा सच के संपादक छत्रपति रामचंद्र की 22 नवंबर 2002 को डेरा की सुपारी पर हत्या कर दी गई।
छोटे, मझोले और स्थानीय समाचार पत्रों को लगातार कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है।उनकी एक ऐसी छवि बनाई गई कि वे केवल काले पीले धंधे करते हैं। ये किसलिए हुआ ये बात अब समझी जा सकती है। छोटे और स्थानीय समाचार पत्रों की जगह बड़े संस्थानों के जिला संस्करणों ने ले ली है।यह अध्ययन होना चाहिए कि जिस तरह जिले जिले में भ्रष्टाचार की घटनाएं बढ़ी है क्या उसका एक छोटा सा भी हिस्सा इऩके जिला संस्करणों में भी जगह पाता है? भागलपुर का सृजन घोटला वर्षों तक होता रहा और बड़े कारोबारी मीडिया घराने के स्थानीय संस्करण सृजन को पुरस्कृत और सम्मानित करते करते रहे और सृजन से अपनी वैध अवैध हिस्सेदारी लेते रहे।
हरियाणा में कई अच्छे और साहसी समाचार पत्र निकलते रहे हैं।लेकिन उन तमाम समाचार पत्रों की जगह दिल्ली और चंडीगढ़ से छपने वाले संस्करणों ने ले ली है। वे खुद अमीर बने है और कुछेक को अमीर बनाया है। उन संस्करणों का अध्ययन करें कि क्या उन्होने डेरों की करतूतों को उजागर करने की रिपोर्टिंग की है?
स्थानीय समाचार पत्रों के निकालने का उद्देश्य आमतौर पर सामाजिक सरोकार होता था और यह सामाजिक सरोकार ही पत्रकारों को विपरीत स्थितियों से जूझने की ताकत देता था।लेकिन मौजूदा दौर में पत्रों का स्थानीय प्रतिनिधि चार पृष्ठों के लिए सामग्री तैयार करने के साथ साथ पैसा ( विज्ञापनों) बटोरने के लिए भी जिम्मेदार होता है।उनसे नाली की सफाई की कार्रवाई की रिपोर्टिंग की उम्मीद तो कर सकते हैं लेकिन सच्चा सौदा डेरा और सृजन घोटाले का भंडापोड़ की रिपोर्टिंग की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

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