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मीडिया सबका नहीं होता

हिन्दुस्तान टाइम्स की शुरुआत शाम को निकलने वाला टैब़ॉलाइट पत्र के रूप में 24 सितंबर 1924 को महात्मा
गांधी ने की थी। इसकी तीस प्रतियां बिकती थी और चार सौ प्रतियां मुफ्त में बांटी जाती थी। अकालियों ने
गुरुद्वारा आंदोलन के समर्थन में प्रचार के इरादे से इसे एक पाती के रूप में शुरुआत की थी। इसमें कनाडा के
सिखों की प्रमुख भूमिका थी। तब पंजाब के भौगोलिक क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए लाहौर को इस अखबार के लिए
सबसे उपयुक्त जगह माना गया। लेकिन वहां पहले से ही दो समाचार पत्र थे। वे द ट्रिब्यून और द सिविल एंड
मिलिट्री गजट थे। तब हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक सरदार के एम पाणिकर इस अखबार को दिल्ली ले आए।
दिल्ली में राष्ट्रीय राजनीति के बीच उन्हे अपने अखबार का प्रकाशन ज्यादा महत्वपूर्ण लगा। लेकिन 1925 में
गुरुद्वारा अधिनियम के बनने के बाद सिखों की दिलचस्पी इस अखबार से कम हो गई और उन्होंने उसका
मालिकाना हक पंडित मदन मोहन मालवीय को दे दिया और 1927 में पंडित मालवीय ने यह मालिकाना महात्मा
गांधी के बेहद करीबी उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला को सौंप दिया। तब अंग्रेजी के कई समाचार पत्र अंग्रेज
शासकों के समर्थक थे लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स ने कांग्रेस की राजनीति के साथ अपनी यात्रा शुरू की।
2 फरवरी 1881 से द ट्रिब्यून को सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने लाहौर से शुरू किया था। वह संस्थान अब
चंडीगढ़ में है और वह आर्य समाज द्वारा स्थापित ट्रस्ट द्वारा संचालित होता है।
समाचार पत्रों के इतिहास पर नजर डालें तो प्रत्येक समाचार पत्र समाज के किसी न किसी वर्ग, समूह, समुदाय,
जाति को आधार बनाकर निकाले गए।
द टाइम्स ऑफ इंडिया को भारत के पश्चिम क्षेत्र में, द मेल को दक्षिण के हिस्से में और पॉयनियर को उत्तर भारत
के हिस्से में अंग्रेजों के बीच संवाद के उद्देश्य से निकाला गया। दो गुजराती ‘जाम ए जमशेद’ और ‘बॉम्बे समाचार’
चीन से व्यापार और कपड़े के व्यापार में उभरते पारसी समुदायों को संबोधित करने के लिए शुरू किए गए।
अमृत बाजार पत्रिका तब की देश की राजधानी कलकत्ते में बदतर हालात में पहुंच रहे भारतीयो व वेतनभोगी वर्ग के
लिए शुरू की गई।
समाचार पत्रों के आर्थिक पहलुओं पर शोध करने वाले अशोक वी देसाई ने लिखा है कि शुरुआती दिनों के समाचार
पत्रों की सफलता का कारण यह था कि उन सभी ने एक निश्चित और एक खास क्षेत्र के उच्च वर्गों पर अपने को
केन्द्रित कर रखा था और यह स्थिति दूसरे विश्वयुद्ध के समय तक बनी रही।
स्पष्ट है कि मीडिया संस्थान केवल एक मालिक की पूंजी से विकसित नहीं होता है उसे एक ढांचा विकसित करता
है जिसमें वर्चस्ववादी समूहों के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सांस्कृतिक हित जुड़े होते हैं।हम किसी मालिक व
संस्थान के केवल पूंजी विनियोग को ही केन्द्र में रखकर मीडिया के चरित्र का विश्लेषण करते हैं। एक समूह के
तौर पर सांस्कृतिक और वैचारिक हितों के लिए मीडिया में विनिय़ोग होता है। इसे केन्द्र में रखकर विचार करें तो
ये बात सामने आती है कि क्यों दमित और शोषित संस्कृतियों का समूह का मीडिया ‘मुख्य धारा ’ में क्यों नहीं
है।
पाठक,दर्शक,श्रोता, विज्ञापनों, सरकारी नीतियों आदि को एक साथ रखकर देखने की जरूरत है कि कैसे वे एक
वैचारिक ढांचे के रूप में अपने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सांस्कृतिक हितों के लिए आपस में संवाद करते हैं
और अपने वर्चस्व को बनाए रखने व वर्चस्व पर आने वाले किसी भी किस्म के प्रभाव को तुरंत निष्क्रिय करते है
और अपने वर्चस्व का लगातार विस्तार करते हैं।

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